मज़ेमज़े में में इनमे जान भी फूँक दी,
खेलते खेलते जज़्बात भी भर दिए,
फिर खूब खेल रहा है तू इनसे,
जब चाहे जो, वो करता है,
जब चाहे तोड़ देता है,
जब चाहे नया बना लेता है।
क्या तेरे अंदर कोई जज़्बात नहीं हैं?
तभी तो तुझे दर्द का अहसास नहीं है,
एक बार उतर आ,
ऐसे ही मिट्टी का बन कर,
जज़्बातों को खुद में भरकर,
जी कर देख इन खिलोनों को,
रह कर इनके के बीच,
तब तुझे एहसास होगा,
कि तू कैसा खेल रचा है,
कैसे हँसाता है, रुलाता है।
एक बार तो आ कर देख, आकर देख ये मंजर,
तू भी नहीं देख पाएगा,
इंसानी जज़्बात तब समझ पाएगा,
इस हाहाकर को तू तब ही ख़त्म कर पाएगा,
जब
इंसान बनकर इंसानी बस्ती में रहने आएगा।
आएगा ना?
😌😢😢🙏🏻🙏🏻 दीपा पांड़े
दीपा पांड़े |
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