Sunday 9 May 2021

मेरा महाभारत


 मेरा महाभारत

मन है, मस्तिष्क है, और है अन्तर ध्वनि,

मन मस्तिष्क जब है लड़ते,

अन्तरध्वनि की एक ना सुनते,

केवल डूबे अहंकार में,

उचित राह से भटक हैं जाते,

तब मेरे अन्तःकरण में,

जो उद्वेग है उठता,

वही है मेरा महाभारत।


                  मेरा "मैं" है अर्जुन,

                  अन्तरध्वनि कृष्ण है,

                  मन मस्तिष्क है पाण्डव कौरव,

                  अन्तरद्वन्द है  वह भीषण युद्ध,

                  यह नश्वर शारीर है कुरुक्षेत्र।


क्या अन्तर है,

गीता के अर्जुन-कृष्ण,

और मेरे "मैं" और अन्तरध्वनि में?


      अर्जुन सुनते हाथ जोड़ नतमस्तक हो कर,

      कृष्ण सुनाते इस,

      अम्बर, जल-थल, आकाश, शून्य

      और ब्रह्मांड का सत्य।


      अर्जुन की जिज्ञासा पिपासा
      तृप्त ना होती,
      'मैं' की वह चिता लगा कर,
      अहंकार और दंभ को उसमें जला कर,
      ज्ञान प्राप्त कर युद्ध करने उतर गया।

    

                आज ना उसे दीखता कोई अपना,

                ना ही कोई पराया,

                अगर थे तो,

                बस दुराचारी अत्याचारी,

                जिसके बोझ से इस धरती को.

                मुक्त करना था कर्तव्य उसका,

                क्यूंकि कृष्ण ने यही ज्ञान दिया था।  

                            

पर मेरे अन्दर का अर्जुन तो,

अन्तरध्वनि की सुनता कहाँ है?

हाथ जोड़ नतमस्तक नहीं वह,

अहंकार के अन्धकार में डूबा,

मन मस्तिष्क के अन्तरद्वन्द में,

अंतरध्वनि को झुठला दिया,

अपने कृष्ण को सुनना भूल गया है।


            अन्तरध्वनि अब सोचती,

            मैं द्वापर युग की कृष्ण नहीं,

            कलयुग की हूं अन्तरध्वनि,

            नहीं सुनते ना मुझको तुम,

            लिप्त रहो मन मस्तिष्क के अन्तरद्वंद में

            डूबे रहो अहं के अन्धकार में,

            मैं मौन रहूंगी। 

                               

आ जाना जब अहं को मार सको,

मन मस्तिष्क को शांत कर सको,

इसी कुरुक्षेत्र में ही रहती हूँ, 

तुम्हारे अंतःकरण के,

कौरव औ" पांडवों का,

कर दूँगी मार्ग दर्शन,

इस कुरुक्षेत्र को ना होने दूँगी,

दोबारा दूषित।

बस इतनी विनती है,

मुझे सुनने का साहस करना,

तुम्हारे कुरुक्षेत्र में रहती हूँ,

ये सदा याद रखना,

ये सदा याद रखना।


अंत मे "मैं" की मटकी फोड़ दी!

मन माखन हो पिघल गया,

मन मस्तिष्क नतमस्तक हो गए,

अंतःकरण ने सुध ली तो,  

अंतरध्वनि ने बचा लिया,

महानाशक महाभारत से,

मेरे कुरुक्षेत्र को बचा लिया।

                       बचा लिया।

 


9 comments:

  1. Such a nice poem with very good classic Hindi. I wish I could write like you. Please do notify me whenever you write such poetry.

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    1. Thank you Dr. O. P. Verma for your appreciation. Sure I will send the link to you when I post any article.

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  2. Replies
    1. Thank you Jaya for your appreciation. It encourages me to pen my thoughts.

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  3. I don’t read much poems, rather don’t understand much. But I must say this one nicely written!

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