कहानी
कहानी कहें या अपनी आप बीती, जब हमने बतानी शुरू की तो सब उत्साहित हो कर ऐसे बैठ गए मानो हम रानी लक्ष्मी बाई, या देवी अहिल्या बाई की कथा सुनाने जा रही थीं (लखनवी हैं हम, मैं नहीं हम कहते हैं)। हमने भी कुछ रहस्मय विराम देते हुए शुरू किया ही था कि "जब हम जवां थे" और सबकी भौहैं वक्राकार हो गई,
सब हमको ऐसे देखने लगे मानो हमने कुछ अवांछित शब्द कह दिए हों। सब हत्स्बद्ध थे, हम अचंभित थे।
हमने माना कि हम ७० के मुहाने में खड़े हैं, पर गोया हम भी कभी बच्चे थे, जवान थे और अल्हड़पन के लिए मशहूर थे, गली मोहल्ले से गुजरते तो दस पांच पीछे हो लेते थे।
अब कमर धनुष हो गई,
हाथ बाण बन सहारा देते,
केश जो सीसे के थे,
सो अब और सुंदर हो गए,
चांदी की पर्त चढ़ा,
और सुसज्जित हो गए,
तो क्या?
मुहँ ने सोचा ये दांत किस काम के,
कभी थोड़ा मुस्करा कर,
सफेद मोती दिखलाते,
तो कभी खीसें निपोरते थे,
अब तो लोगों को कमर या,
केशों की चाँदनी दिखती है,
मुस्कुराये या खीसें निपोरें,
किसीको क्या पड़ी?
फिर निकाल फेंके दांत,
मुहँ पोपला हो गया,
तो क्या?
मुहँ पोपला हो गया,
कमर धनुष हो गई,
काली रात सिर पर,
अब सुनहरी हो गई,
तो क्या? तो क्या हुआ?
हम भी कभी बच्चे थे,
जवान थे,
अल्हड़ थे,
गली चौराहे से गुजरते,
तो दस पांच आगे पीछे हो लेते।
समझे?
कहानी या यूं कहिये,
आप बीती तो रह गई,
सब की निगाहों ने,
कमान रूपी भौंहौं ने,
कमसिन जवानी की,
भूली यादें ताज़ा कर दी,
और फिर,
इस पोपले मुहँ से,
बचपन से पचपन,
तक की बातें,
ऐसे गिरीं,
मानो नकली बत्तीसी।
अरे अब तो समझो,
हम भी कभी जवां थे।
चुप चाप अपने दंत हीन मुहँ को,
रुमाल से पोछते हुए,
रेशमी केशों पर हाथ फेरते,
धनुष रूपी कमर को,
बाण सा सीधा करने का,
असफल प्रयास करते,
खिसके चश्मे को नाक पर चढ़ाते,
थोड़ी तिरछी नज़र करते,
शर्माते हुए बस इतना ही बोल पाए,
गोया हंसो नहीं,
भौंहैं टेढ़ी करो नहीं,
क्यूँ कि हम भी कभी,
बच्चे थे,
कमसिन जवानी के,
गर्वान्वित स्वामी थे,
हम भी कभी बच्चे थे,
कमसिन जवानी के धारक थे।
और हमारी कहानी शुरु होने से पहले ही खत्म हो गई, क्यूँ कि सुनने वाले अभी भी विस्मित बैठे थे कि ये क्या वाकई में कभी जवां थे 😂😂😂.
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