सोचो जरा सोचो
जिस दिन हमने जन्म लिया,
उस दिन से ही मृत्यु के राह चले,
इस सत्य को कभी किसी ने पहचाना ?
सोचो जरा सोचो !
गुज़रते हर वर्ष पर,
वर्षगांठ के पर्व पर,
हर्ष मानते उत्सव की तरह,
पर सोचा कभी जीवन से,
घट गया अब एक और वर्ष,
सोचो जरा सोचो !
उत्सव तो है,
हम जीवित हैं,
जीवन की राह पर,
कठिनाईयों की पगडंडियों से,
आहलाद और व्यथा की,
सफलता और विफलता की,
मित्रता और शत्रुता की,
टेढ़ी मेढ़ी ऊँची नीची,
सहज और दुर्गम राहें चल,
जीवन का यह वर्ष बिताया,
उम्मीदों का साथ लिए,
आगे बढ़ने का संकल्प किया,
उत्सव वर्षगांठ का मनाया।
पर सोचो ज़रा सोचो,
जीवन की इस यात्रा का,
वर्ष एक और हुआ कम,
सोचो जरा सोचो !
लक्ष्य को सन्मुख रख
जब राह थामे चलते हैं,
दुर्गम दुर्बोध विकट क्षण,
सब सुगम सहज सुबोध,
और बोधगम्य हो जाते हैं।
जीवन की इस यात्रा का,
जब लक्ष्य हो “पी“मिलने का,
तब राह सहज हो जाती है,
हर व्यतीत हुआ क्षण,
यह आभास दिलाता है,
शिखर अब दूर नहीं,
आनंदमय अंत का,
अनंत से मिलन का।
इसलिए उत्सव मनाओ,
हर वर्ष के अंत का,
हर वर्ष के आरंभ का,
यह जीवन भी एक उत्सव है,
जब जीवन लक्ष्य जो पुनीत।
सोचो जरा सोचो!
अन्यथा सब व्यर्थ है,
सोचो जरा सोचो!
इस जीवन का क्या अर्थ है?
सोचो जरा सोचो???
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