Monday 5 April 2021

अष्टविनायक की तीर्थ यात्रा

 जीवन में कुछ सपने सच हो जाते हैं और कुछ अधूरे, इन्हीं अधूरे सपनों के सच होने की आशा में जीवन खुशी खुशी बीत जाता है। शायद इसीलिए "आशा ही जीवन है" कहते हैं।

मैं बद्रीनाथ, केदारनाथ, पुरी सोमनाथ, द्वारका, महाकालेश्वर और अन्य कई तीर्थ स्थान जाना चाहती हूं, हाँ पंचमड़ी, खजुराहो कोणार्क, अमृतसर का स्वर्ण मंदिर ऐसे कितने ही स्थान है जो देखने के सपने संजोए बैठी हूं। शायद ये कोविड क् प्रकोप समाप्त हो जाएगा और बिना किसी भय के मैं पुनः यात्रा का लुफ्त उठा पाऊँगी इसी आशा से अपने उन सुनहरे दिनों को याद कर रही हूँ जब अष्टविनायक की यात्रा सफल हो सकी थी।

कितना मधुर और सुखदायक था वह अनुभव जब हमने गणेशजी के अष्ट स्वयंभू मंदिरों के दर्शन किए थे।पूणे से रोज दो गणपति जी के दर्शन करके घर लौटना और पुनः अगले दिन यात्रा को निकल जाना। अष्टविनायक की यात्रा हमेशा प्रारम्भ और अंत मयूरेश्वर देव के दर्शन से होती है,अतः पहले दिन सुबह ६ बजे हम पूजा सामाग्री ले कर यात्रा को चले।

मयूरेश्वर दे का मंदिर करीब करीब ६५ किलोमिटर है हमारे घर से (Pimple saudagar). सुहावनी पवन बह रही थी, नृत्य करती सूर्यदेव की किरणें आकाश को स्वर्णिम बना रही थीं और हम अति उत्साहित इस दृश्य का आनंद उठाते हुए अपनी राह पर बढ़े जा रहे थे।

धान के खेत, कहीं दूर घर की रसोई से निकलता धुआं, गाय, बकरियों का खेत में चरना इस बात का प्रतीक था कि ग्राम्य जीवन अपने प्रातःकाल के काम में व्यस्त है। गाँव के पास की चाय की दुकान में चाय पी, थोड़ी देर खुली हवा का लुफ्त उठाया और चल पड़े आगे। करीब करीब डेढ़ घंटे का सफर तय कर हम मोरगांव पहुंचे। 

चूंकि मंदिर गाँव के अंदर है सो गाड़ी पार्क करके आधा किमी. पैदल जाना पड़ता है। पूजा सामाग्री से लेकर रोजमर्रा के समान और गरमा गरम चाय, जलेबी, समोसे तथा अन्य खाने की सामाग्री की दुकाने रास्ते के दोनों तरफ है, परंतु उन सब से दूर मैं अपने ही विचारों में मग्न आगे बढ़े जा रही थी। उस समय तो ऐसा लग रहा था कि में मेरे पग धरती पर नहीं पड रहे हैं, शायद इसी को हवा में उड़ना कहते हैं।

मंदिर का प्रवेश द्वार काले पत्थरों से बना है ।  इसके परिधि में दस फुट ऊंची दीवार है और चारों कोनों में मीनारों के होने से दूर से मस्जिद का अह्सास होता है। कहते हैं कि मीनार बनाने का कारण मंदिरों के विध्वंसक मुगलों के दृष्टि से इस स्वयंभू मंदिर को बचाना था।

मंदिर में चहल पहल थी, विद्यालयों के छात्रों का संस्कृतिक भ्रमण का समूह, तीर्थ यात्रियों के समूह का झेला मेला लगा था। क्यूँ कि सुबह 8 बजे हम देव दर्शन के लिए चले गए थे अतः हमें तनिक भी परेशानी या लंबी कतारों का सामना नहीं करना पड़ा। बहुत ही सुन्दर और सुलभ दर्शन और पूजा अराधना के बाद हमने परिक्रमा करी और देखा कि मंदिर के चार द्वार (पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर दिशा में स्थित) हैं।

इन  चार द्वारों का वैदिक महत्व है और प्रत्येक द्वार गणपति जी के चार युगों के अवतार को प्रदर्शित करता है। प्रत्येक द्वार में गणपति जी अलग अलग अवतार में विराजमान हैं। पूर्वी द्वार में बाल गणपति जी सीता और राम जी के साथ हैं तो पश्चिमी द्वार में चिन्तामणि अवतार में कामदेव जी के साथ, उत्तरी द्वार में महागणपति जी वाराह और उनकी पत्नी माही के साथ तो दक्षिणी द्वार में विघ्नेशजी शिव और पार्वती जी के साथ विराजमान हैं। चारों द्वार चार युगों के प्रतीक हैं।

इस मंदिर में स्वयंभू गणपति जी त्रिनेत्र, चतुरबाहु और वक्रतुण्ड हैँ। गणपति जी के सम्मुख अत्यंत ऊंचा मूषक है जो कि गणपति जी का वाहन है, परंतु ५ फुट ऊंची नंदी  क्यों हैं और गणपति जी के मंदिर में नंदी जी की मूर्ति की भी स्थापना की गई है। गणपति जी त्रिनेत्र क्यों हैं और नंदी जी की स्थापना क्यों की गई है इसका संतोषजनक उत्तर मुझे नहीं मिला। मंदिर के प्रांगण में विशाल पिपल के वृक्ष के नीचे कुछ देर बैठ कर मंदिर में पूजा और मंत्रोच्चारण का आनंद लिया फिर अदरक वाली चाय पीते हुए गाँव के बाजार का लुफ्त उठाया और चल पड़े सिद्धेश्वर गणपति दर्शन के लिए.

 सिद्धिटेक मोरगांव से कोई सवा घंटे का रास्ता है ( करीब ६७ किमी). लहराते गन्ने के खेत, दूर दूर तक हरियाली पतली गाँव की सड़क, इस बात का अह्सास दिला रहा था कि शहर के चिल-पौं से दूर शांति पूर्ण जीवन है, जहां खुली शुद्ध हवा में सांस लेने का एक अनोखा ही आनंद है।

सिद्धेश्वर गणपति का भी प्रवेश द्वार काले पत्थरों का बना है, परंतु यह मयूरेश्वर से थोड़ा बड़ा है। प्रवेश द्वार के ऊपर नगाड खाना, द्वार पाल के रूप में जय और विजय हैं। यहां गणपति जी वक्र तुंड नहीं हैं।

मान्यता है कि गणपति जी की मूर्ति अगर वक्र तुंड नहीं है ( दाहिने ओर तुंड है) तो उसे तभी स्थापित करना चाहिए जब शास्त्रों के अनुसार बतायी विधि से नित्य पूजा कर सकें, इसीलिए घरों और मंदिरों में आपको हमेशा वक्र तुंड गणपति ही स्थापित मिलेंगे। सिद्धेश्वर ही केवल एक ऐसा अष्टविनायक मंदिर है जहां गणपति जी वक्रतुण्ड नहीं हैं। मान्यता है कि शुद्ध मन ऐवं भाव से की गई कमाना सिद्धेश्वर महाराज अवश्य पूर्ण करते हैं, इसीलिए इनका नाम सिद्धेश्वर है।

दर्शन करते करते, पूजा अर्चना पूरा होते दस बज गए, मंदिर के शांत, भक्ति पूर्ण प्रांगण से जाने का मन ही नहीं कर्ता था पर आत्मा के साथ साथ पेट को भी तो शांत रखना था और सुबह से कुछ खाया नहीं था सो बाहर लगे बाजार में बैठ कर दो ग्लास गन्ने का ताज़ा रस गटकाया, और गणपति जी को नमस्कार कर पुणे को चल दिये।

दिन चढ़ आया था, भूक लगी थी, रास्ते में कामत रेस्टोरेंट था अतः गरमा गरम डोसा इडली वडा सांभर खा कर भूक शांत करी कॉफी पी और सोते जागते बाकी सफर तय करके अपने घर 4 बजे पहुंचे।

मंदिर तभी जाया जाता है जब देव बुलाते हैं। बहुत ही सुखद अनुभव था पहला दिन का। आज रात आराम करना है क्यूँ कि कल का दिन बहुत पैदल चलने का, ३०४ सीढियां चढ़ने का है। रात्री भोजन के बाद तुरंत सो गए, कल लेन्याद्री में गिरिजा माता गणपति जी के और ओझार / ओझर में.... दर्शन करने थे।

लेन्याद्री गुफा के लिए ३०४ सीढ़ी चढ़ कर पहाड़ी के ऊपर जाना पड़ता है। मुझे घुटनों की तकलीफ थी, मन में दुविधा थी कि चढ़ पाऊँगी कि नहीं। लेन्याद्री गुफाओं को जाने का अति सुगम बनाया गया है। चौड़ी सीढ़ियां, सुस्ताने के लिए चौड़े पत्थरों की दीवार है। 

बन्दर पेड़, पहाड़ी और सीढ़ियों में हर जगह बैठे थे। किसी की जेब में से पर्स निकाल कर मस्ती की तो किसी के हाथ से पानी की बोतल छीन पानी पीने लगे। धुंध भरी सुबह, ठण्डी पवन, मनमोहक नज़ारा और बन्दरों की मस्ती देखते देखते कब गुफा के द्वार पर पहुंच गए पता ही न चला।

गुफाएं बौधकालीन हैं। उनकी नक्काशी देखते ही बनती है। गिरिजामाता गणपति जी के दर्शन कर, कुछ देर खुले आसमान के नीचे ठण्डी हवा का आनंद लेने के बाद नीचे उतरने को अग्रसर हुए।

मन को तृप्त करने के बाद उदर तृप्ति की बारी आई। स्वच्छता से बनाया गया ताजा विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थ उपलब्ध थे, सो पेट भर खाया, चाय पी, रास्ते के लिए वडा पाव बनवाया, ताज़े अमरुद, शहतूत खरीदे और ओझर को चल दिये।

थक तो गये थे, वडा पाव खाया और मैंने बाकी सफर सो कर तय किया। करीब करीब डेढ़ घंटे के भीतर हम ओझर पहुंचे। गाड़ी पार्किंग मंदिर से थोड़ी दूर है, परन्तु मन्दिर तक का रास्ता साफ और ब्लाक टाइल्स लगा होने से बहुत सुगम है।


मन्दिर का प्रवेश द्वार यहां भी काले पत्थरों का बना है। इस मंदिर के तीन द्वार हैं, मुख्य द्वार पर गणपति जी की मूर्ति के साथ तोते और बन्दर बने हैं। मन्दिर के स्तम्भ के ऊपरी हिस्से में अष्टविनायक के आठों गणपति की प्रतिमा बनाई गई हैं। मंदिर में दो मुख्य भवन हैं। गर्भस्थान में गणपति जी विराजमान हैं और बाहर के भवन में विशाल मूषक। मान्यता है कि इस स्थान पर गणपति जी ने विघ्नासुर का वध किया था, इसलिए इस गणपति का नाम विघ्नहर है। गणपति जी की मूर्ति हीरे और माणिक से सुशोभित है। ऊपर की दीवारें पर स्वर्णिम हैं। अति सुलभ एवं मन को एकाग्र करके दर्शन किए फिर मंदिर के प्रांगण में शांति की अनुभूति का आनंद लेते हुए कुछ देर बैठे। उठने को इच्छा तो न थी परन्तु सन्ध्या होने को थी, घर पहुंचते रात्रि हो जायेगी, कल पुनः यात्रा करनी है, यही कारण एक बार फिर दर्शन करके घर को चल दिए।

शरीर थका था पर मन में अद्भुत शांति और सुख का अनुभव था। रात्रि भोजन करके निद्रा मग्न हो गए।

हर रोज की तरह अलार्म की खनखनाहट ने उठने का आगाह किया। तैयार हो कर ६बजे थेऊर और राण्जण गांव में चिंतामणी और महागणपति दर्शन को अग्रसर हुए।

थेऊर में भी प्रवेश द्वार काले पत्थर का ही है। द्वार देखने से मंदिर थोड़ा छोटा होने की अनुभूति देता है, परंतु अन्दर प्रवेश करते ही विशाल प्रांगण है, जिसकी परिधि में सभी देवी देवताओं की यथावत स्थापना की गई है। 

मंदिर का मुख्य भवन लकड़ी का है। सामने बहुत बड़ा पत्थर का फव्वारा है। चिन्तामणि गणपति पेशवाओं के कुलदेवता हैं। युद्ध में जाने से पहले आशीर्वाद लेने और बाद में आभार प्रकट करने पेशवा चिंतामणी गणपति दर्शन को अवश्य आते थे। 

मान्यता है कि रिषि कपिल के पास चिंतामणी थी जो मनवान्छित फल प्रदान करती थी, दैत्य राज गण ने यह मणि उनसे छीन कर ले ली, जिससे रिषि अत्यधिक दुखी एवं क्रोधित हो गए। उन्होंने गणेश जी की कठोर तपस्या की। गणेश जी से वरदान माँगा कि उनका मणि उन्हें प्रदान करने की कृपा करें। गणेश जी रिद्धि के साथ प्रकट हुए। रिद्धि ने अपने प्रभाव से विशाल सेना प्रकट की और गणेश जी ने असुर को हरा कर उसे सुरलोक पहुंचा दिया। चिंतामणी पुनः रिषि को प्रदान कर दी। इसी कारण से थेऊर गणपति को चिंतामणी गणपति के नाम से जाना जाता है। 

एक और मान्यता के अनुसार अति ब्रह्मा जी एक बार अति विचलित और अशांत थे। उन्होंने थेऊर में गणेशजी की कठिन तपस्या की थी तब गणेश जी प्रकट हुए और उनकी चिंता दूर करके उनके अशांत मन को शांति प्रदान की और उनको अनुगृहीत किया, इसलिए थेऊर के स्वयंभू गणपति को चिंतामणि गणपति कहते हैं। 

दर्शन, परिक्रमा हम प्रांगण में बैठ गए। अप्रेक्षित उन्माद परंतु साथ ही शांति की अनुभूति कर रहे थे। कब ११बजे पता ही न चला। राण्जण गांव महागणपति के भी तो दर्शन करने हैं ड्राइवर ने याद दिलाया। अतः उठना पड़ा। 

मौसम और ठण्डी पवन का आन्नद लेते कुछ २ घण्टे में राणजण गांव पहुचे। सूर्य देव की कृपा कुछ अधिक ही हो रही थी, जल्दी जल्दी पग भरते मंदिर के पास पहुंचे। भव्य प्रवेश द्वार उसके बाद छत से ढ़का रस्ता सर और पैर दोनों को तपती धूप से आराम दे रहा था। गाँव के हाट बाजार में ताज़ी सब्जियां बिक रहीं थीं सोचा थोड़ी ले ही लूं। 

मान्यता है कि शिव शंभू ने इसी स्थान में गणपति जी की स्थापना करके अराधना की थी कि वे त्रिपुरसुर राक्षस को पराजित करके उसके वध में उनकी सहायता करें ताकि सभी मनुष्य ऐवं देवता सुरक्षित रह सकें। गणपति जी अपनी अपार शक्ति के साथ प्रकट हुए और शिव जी की सहायता करी। यहां पर गणपति जी को परम ब्रह्म के रूप में पूजा जाता है। 

गणपति जी दस मुखी ऐवं बीस भुजा वाले रूप में हैं। उनके दाहिने ओर रिद्धि जी कमल लिए हुए विराजित हैं। मंदिर का द्वार ऐवं मूर्ति ऐसे स्थित है कि जब सूर्य देव दक्षिणायन होते हैं तो उनकी किरणें महागणपति जी की अर्चना में उनके मुखमंडल को आच्छादित करती हैं। चारों ओर शांति का वातावरण है। कैमरा और मोबाइल बंद रखने का आदेश है ताकि भक्तजनों के पूजा अर्चना ऐवं ध्यान में अड़चन ना आए।

दर्शन ऐवं पूजा करके अति आनंद आया और प्रसाद का भोजन करके अति तृप्ति मिली। कुछ देर ध्यान किया, तन, मन और पेट सभी तृप्त थे। ईश्वर का धन्यवाद किया और मंदिर के खुले प्रांगण और बगीचे में भ्रमण के लिए गए. देखते देखते पांच बज गए, घर वापस अना था, ईश्वर को नतमस्तक हो कर गाड़ी में बैठ गए। 


आखिरी दिन था पाली में बल्लालेश्वर और महड (महाड) में विघ्नहर गणपति दर्शन का। बल्लालेश्वर गणपति पालि के सुधागढ़  गांव में स्थित है। सुधागढ़ कोकम के शर्बत और पोहे के पापड़ के लिए भी जाना जाता है। 

मान्यता है कि बल्लाल नामक एक युवक जो एक सेठ का पुत्र था गणपति का अनन्य भक्त था। उसने एक पत्थर की मूर्ति बना कर गणपति की प्रतिमा की स्थापना की। उनके मित्र भी उनके साथ बैठ कर प्रवचन सुनते और पूजा करते रहते। लोग उसके पिता से शिकायत करते थे कि आपका बेटा खुद तो निकम्मा है ही हमारे बेटों को भी गणपति के नाम से कामचोर बना रहा है। गुस्से में बल्लाल के पिता ने उसी पत्थर से उसे बांध दिया। बल्लाल फिर भी ना डिगा और गणेश जी की आराधना करता रहा। गणपति जी उसकी आस्था और भक्ति से प्रसन्न हुए और उसके सन्मुख प्रकट होकर वरदान दिया कि आज से इस स्थान पर मेरे नाम से पहले तुम्हारा नाम सादर से लिया जायेगा, उस दिन से पाली के सुधागढ़ में स्थित गणपति को बाल्लालेश्वर के नाम से जाना जाता है। 

यह मन्दिर पहले लकड़ी से बना हुआ था, परन्तु अब काले पत्थर से उसका पुनः निर्माण कर दिया गया है। मुख्य मंदिर में जाने के लिए कई अन्य भवनों से गुजरना पड़ता है जिनमें सभी देवी देवताओं की स्थापना की गई है। मंदिर का मुख्य द्वार पूर्व की ओर ऐसे स्थित है कि उगते सूर्य की प्राथम किरणें बल्लालेश्वर महाराज के मूर्ति पर प्रणाम करती हैं। बल्लालेश्वर की के साथ रिद्धि और सिद्धि भी विराजमान हैं। 

मंदिर अति रम्य और विशाल है, स्वच्छता और सुंदरता देखते ही बनती है। कैमरा, मोबाइल लाकर में रखने पड़ते हैं। भीड़ बहुत थी परन्तु मंदिर प्रशासन बहुत ही अच्छा काम कर रही थी। भक्त जन भी सुव्यवस्थित ढ़ग से पंक्ति में खड़े होकर दर्शन कर रहे थे। दर्शन पूजा करके, गांव के बाजार में प्रवेश किया और पापड़ कोकम शर्बत खरीदा। अंत में उदर की क्षुधा मिटाने गांव के लोगों द्वारा संचालित एक छोटे से होटल में इडली वाडा सांभर खा कर, कॉफी पी कर तृप्त हुए और बप्पा को मन ही मन प्रणाम कर के महाड के लिए चल दिये

महाड का मंदिर अन्य मंदिरों से भिन्न है, वहाँ काले पत्थरों का उपयोग नहीं किया गया है. मंदिर वरद विनायक के नाम से प्रसिध्द है। इस भव्य मंदिर के ऊपर स्वर्ण कैलश है। गणपति जी की स्वयंभू मूर्ति क्षीण अवस्था में होने के कारण मंदिर के प्रशासन ने उसे विसर्जित करके नयी मूर्ति बना दी, भक्तों ने इसे कोर्ट में चुनौती दी अब एक मूर्ति गर्भगृह और एक बाहर के भवन में स्थित हैं। गणपति जी वक्र तुंड है और रिद्धि सिद्धि के साथ विराजमान हैं। 

मंदिर में फोटो लेना माना है। बाहर से एक दो ले ही लीं। संगमरमर के बने प्रांगण में पूजा, अर्चना, ध्यान करने की सुविधा भी उपलब्ध है। मंदिर के ऊपर शेषनाग और बाहर गौमुख है। 

दर्शन पूजा अर्चना करके परिक्रमा की और शांतिदायक वातावरण में गणपति देव के सन्मुख हम भी ध्यान में बैठ गए। 

खुशी थी कि देव दाया से अष्टविनायक की तीर्थ यात्रा हो गई, परंतु मन में कुछ उदासी भी थी। ना जाने क्यों अब कहीं जाने को मन नहीं कर रहा था, लगता था यहीं बैठे जीवन व्यतीत कर दो। 

परंतु हम तो घर से पूर्णरूप से तैय्यार हो कर आए थे महाड के बाद मुरुड जंजीरा में तीन दिन समुद्र के किनारे लुफ्त उठाने के लिए। अतः वरदविनायक जी से आज्ञा और आशिर्वाद ले कर हमने मुरुड के लिए प्रस्थान किया। 

मुरुड से वापस आ कर जो यात्रा मंगलवार को शुरू की थी उसे पुनः मंगलवार को मयूरेश्वर गणपति के दर्शन करके सम्पूर्ण की। 

मुरुड जंजीरा की मस्ती भरी यात्रा के बारे में बाद में कभी। तब तक के लिए :

सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामया। 

सर्वे भर्द्राणि पश्यन्तु, मा कश्चित् दुःख भाग भवेत।। 

ओम शांतिः शांतिः शांतिः ।।ओध

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