Monday, 1 August 2022

मृग और मैं


कस्तूरी तो है मृग में,

ढूढ़ रहा वह बन बन में,

ऐसे ही मैं ढूढ़ रही,

खुद को इस बीहड़ बन में।

            मृग का बन तो हरा भरा है,

            उसका साथी साथ खड़ा है,

            मैं तो एकल खड़ी हुई हूं,

            इस ज़न मानस के सागर में।

कस्तूरी की गंध से, 

सुध बुध खो जब, 

मृग कानन कानन फिरता, 

पक्षियों के मधुर कलरव में, 

प्रकृति की रंगीन छटा में, 

बन की सुंदरता में आसक्त, 

अपने को धन्य पता। 

               इतना जनमानस,

               फिर भी एकल, 

               कोलाहल में खोजता एकांत, 

               बिरक्त नहीं आसक्त हो, 

               मनः शांति की कामना करता, 

               विरोधाभास का जीवन, 

               हे मानस तू क्यूँ है जीता??

               हे मानस तू क्यूँ है जीता??

ज्योत्सना पंत

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