नग्न वृक्षों की डालियाँ,
हवा के इधर उधर जाती,
एक दूजे से टकराती,
लगता था मानो गले मिल कर,
अपने दुःख हैं बांटती ।
कहाँ गई वह छांव,
कहाँ गई वह हरियाली,
जिस पर हम नाज़ करते थे,
इठलाते थे अपनी सुंदरता पर,
हाय आज एक पथिक भी ना आया,
ईष तूने ये क्या दिन दिखलाया।
छोड़ गए सब हमको,
जब परिपक्व हो गए,
देखो जरा,
उड़ते इतराते पत्तों को,
आज वह स्वतन्त्र हो गए।
पत्ते सोचें,
अहा कितना सुखद आनंदमय,
जीवन यह इस स्वतन्त्रता का,
उड़ते है हम र्निबाधित हो,
मंद मंद हंसते नग्न वृक्ष पर,
थे शोभा जिसकी अब तक।
तभी भड़ भड़ करती,
तीव्र गति से हवा आयी,
कुछ पत्ते गिरे धरती पर,
कुछ को उड़ा ले दूर ले गई,
कुछ कुचल गए क़दमों तले,
कुछ अग्नि में भस्म हो गए।
और फिर
आयी बसंत ऋतु,
कोमल कपोलें,
नीद से जगी,
अंगड़ाई ले,
हरित मुख ले मुस्काई,
बोलीं
तू उदास क्यूँ रे वृक्ष,
यह तो जग की रीत,
कोई जाए कोई आए,
तेरा सौंदर्य सदा रहेगा अडिग।
हरित वृक्ष की शाखाएँ,
हवा के झोंके से छम छम नाची,
वह दृश्य मनोहर देख,
धरती भी मुस्काई,
भाग्य पर इठलाई।
ज्योत्सना पंत
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