शब्द विहीन है आज लेखनी,
अश्रु विहीन हैं नेत्र,
ज्वार भाटा का केंद्र बना हृदय,
भावनाओं का सूखा स्त्रोत।
पृथ्वी को हम माँ कहते हैं,
उसको भी हमने तिरस्कृत किया,
इक माँ के सन्मुख उसी की गोद में,
उसकी पुत्री को निर्वस्त्र किया।
नयन मूंदे, कर्ण बाधित हुए,
ना देखा उन अमानुषों को,
जो अट्टहास कर रोंद रहे थे,
उसके नग्न निर्वस्त्र तन को।
किसी ने ना उसकी पुकार सुनी,
ना दर्द रुदन ने दिल दहलाया,
अरे क्या यही है जो सभ्य राज्य का,
सभ्य मानुष कहलाया।
माँ, बहन, पुत्री, पत्नी,
सब रिश्ते कभी,
मात्र ढकोसला लगते हैं,
क्यूँ कि:
थोड़े दिन सब याद रहेगा,
मष्तिष्क पटल पर चित्रित रहेगा,
भय है सब कितनीं "निर्भयाओं" को भूले,
तुमको भी भूल जाएंगे।
क्रूर कुटिल दानवी प्रवृत्तियां,
इस धरती को लज्जित कर देंगी,
तुम जैसी कितनी पुत्रियाँ,
दिन के प्रकाश में रोंद कर,
रात्री के अन्धकार में दहन होंगी।
और वे निर्भीक,
निर्भयता से कुकृत्य करेंगे,
और भी निर्भय हो जाएंगे,
और भी निर्भय हो जाएंगे।
कलयुग के इस अंधकार में ,
शायद कोई कृष्ण बनेगा,
कभी तो शायद आज की द्रौपदी की ,
चीत्कार सुनेगा,
तब तक शब्द विहीन है लेखनी,
अश्रु विहीन रहेंगे नेत्र।
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