एक वृक्ष को जो पतझड़ की शुश्क पत्ते और वसंत ऋतु की हरित क्रांति को साथ साथ लिए, पुराने वस्त्रों को उतार नवीन वस्त्र धारण करने की आतुरता में अपने वक्षस्थल को ताने खड़ा था। तभी एक महानुभाव ने उसे काट कर धराशायी कर दिया। उसे टुकड़ों में कटता देख मन में कुछ भाव आए जो शब्दों में पिरो दिए। दंभ
पवन चली वेग से,
परिपक्व पत्ते रंग बदलते,
खिलखिलाते हैं इठलाते हैं,
कुछ कोमल पंखुड़ियां,
हरित क्रांति का शुभारंभ कर ,
नव वधू सी लाजती हैं।
अपने अल्हड़पन में,
कुछ अहंकार, कुछ दंभ से ,
सूखे पत्ते नव कपोलों से,
खनकती वाणी से बोले,
देखो हम कितना नाचते,
पवन चलती वेग से जब,
स्वछन्द हो नित नये,
गीत मधुर सुनाते हैं।
उतार दो तुम लाज की ओढ़नी
छोड़ो इतना भी क्या शर्माना।
पर वह तो कोमल पंखुड़ियां थी,
लिपट रही डालियों पर,
जैसे हो कोई बालक,
छुपता अपने माँ के आंचल में।
वृक्ष गर्व से सोचता,
कोमल पंखुड़ियां नहीं जानती,
यह तो काल चक्र है,
आज हैं कोमल कल सूख जायेंगी,
सूखी पत्ती नीचे गिर कर,
पंच तत्व में विलीन हो जायेंगी,
मन ही मन में मुस्कुरा,
स्व अहमन्य हो से बोला,
मुझको ले कर इनका अस्तित्व है,
मैं हूँ इनका पालनहार।
तब ही किसी ने मारा कुल्हाड़ा,
पीड़ा से विहल हो वृक्ष,
अश्रु बहाते धराशायी होगया,
ना जाने किसके अग्नि कुंड में,
भस्म हो अपना भी अस्तित्व खो गया,
पंचतत्व में विलीन हो गया ।।
प्रकृति से सीखो,
दंभ ना करो,
ईश्वर के सिवा सब नश्वर है।
प्रकृति, पर्यावरण और उसके क्षरण को उपजी संवेदना से इस क्षणभंगुर जीवन की यथार्थता को इंगित करती पंक्तियां। जो साथ-साथ हमारे द्वारा अमानवीय ढंग से प्रकृति के दोहन को भी रेखांकित करती है।
ReplyDeleteधन्यावाद जीवन जी
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