Saturday, 25 October 2025

स्वप्नलोक



स्वप्नलोक 

सागर में पानी खारा है,

अश्रु भी तो खारे हैं, ओम

सागर तट को छोड़ बहे, 

प्रलय आ जाता है, 

नीर का नयनतट छोड़, 

जब अश्रुपात होता है, 

प्रलय भयंकर लाता है। 


         ओह यह क्या? 

         व्योम में जलधर देख, 

         नेत्र क्यों मेरे बदराये, 

         दो जलकण अश्रु बन, 

         क्यों कपोलों पर ठहराए, 

         ना ना नहीं नहीं,

ये अश्रु नहीं मोती हैं, 

         प्रलय के नहीं यह, 

         आन्नद के ध्योतक हैं। 


दौड़ें बादल आकाश में, 

पंछी भी उड़ते पंख फैलाए, 

दोनों स्पर्धा देते इक दूजे को, 

अपने अपने गंतव्य में जा,

दूर क्षितिज में खो जाएं, 

मैं भी खो जाती उन्हें देख, 

पक्षियों से दूर, 

बादलों के पार, 

शून्य में या शून्य के भी पार, 

जहां सजा है, 

इक स्वप्न लोक, 

मेरा अद्भुत स्वप्न लोक। 


ज्योत्सना पंत 


2 comments:

  1. कुछ छायावादी कविता ... किंतु यथार्थ से जुड़ी हुई .. आशावादी भी

    सुन्दर

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    1. धन्यावाद संध्या।

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