Thursday 7 November 2019

वृक्ष और मूल का संवाद



वृक्ष और मूल का संवाद 

सोचा था मिल बैठेंगे
कुछ कहेंगे,
कुछ सुनेंगे,
कभी अपने आंचल से,
दुनिया की जिस तपती धूप से,
ठंडी छाँव में रखा था कभी,
आज उस धूप और छांव की,
कुछ खट्टी, कुछ मीठी,
रसीले किस्से कहानी सुनेंगे सुनाएंगे ।

उत्साह और उन्माद से भरा था मन
भूल गई थी,
वृक्ष जब बड़ा होता है,
दुनिया को छाँव देता है,
किन्तु उसका मूल आधार,
समय के काल चक्र के साथ,
अंधकार मे भी,
सुख की खोज में,
धरती की गोद मे,
ना जाने कितने दुःख,
कितनी आशाएं,
अपने अन्तःकरण छुपाये,
लुप्त हो जाता है,
सदा के लिए।

तब मूल ने निनाद किया
इस अंधेरे मे अकेले दम घुटता है,
मेरी सुध कब लोगे।

वृक्ष बोला
तुम तो मेरी आधार शिला हो,
तुम्हें नहीं है डगमगाना,
तुम जितनी गहराई मे जाती हो,
मैं उतना ही ऊंचा उठता हूं,
मुझे अपार शिखर को छूने दो।

वह चुप रही
सहनशीलता की मूरत बन कर,
धरती की गोद में समा गई,
आधार शिला ही बन कर रह गई।
आधार शिला ही बन कर रह गई।

Sunday 3 November 2019

मन की पीड़ा


वह अश्रु धार, 
वह रक्त धार, 
वह असह्य पीड़ा से भरे नेत्र, 
भूल नहीं पाऊँगी कभी।

वह गगन भेदी चीख तुम्हारी, 
फिर शून्य का जैसा सन्नाटा, 
वह सिसकी से भरी श्वास तुम्हारी, 
वह मासूम,
प्रश्न चिन्ह से अंकित चेहरा, 
भूल नहीं पाऊँगी कभी।

भयभीत सी रहती थी सदा, 
कहीं चूक ना फिर से हो जाये, 
इस पूर्णिमा के चांँद से मुख पर, 
राहू ना कोई नजर डाले, 
केतु ना कोई छाया डाले, 
उस ग्रहण समय को, 
जब चाँद सा मुखड़ा, 
अश्रु सिंचित था, 
भूल नहीं पाऊँगी कभी।

क्षमा याचना करती हूँ, 
ईश्वर से, 
जो तुम्हारे, 
अन्तः करण में बसता है। 

हाथ जोड़ माँगू ईश्वर से 
तुम 
अपनी किलकारी से, 
उनमुक्त खिलखिलाहट से, 
उन्मादित करदो मेरा अन्तर मन।
उन्मादित करदो मेरा अन्तर मन ।

तुम्हारी दादी।