तन्हा
आज अपना ही साया,
कुछ अजनबी सा लग रहा है,
अपना ही साथ भीड़ सा लग रहा है,
यूँ तन्हा बैठी हूं अपने ही आगोश में,
ये अपने ही हाथों का हार,
फांसी का फंदा लग रहा है,
ना जाने किस अंधकार से घिर गई हूँ,
मैं अपने आप में सिमट गई हूं।
सब हैं मेरे साथ हंस बोलने को,
पर चेहरे सबके धूमिल हो गए हैं,
इस सुलगती आग के धुएँ में ,
इस पसरते अंधकार में ,
ना जाने कहाँ मैं खो गयी हूँ
मैं अपने आप में सिमट गई हूं ।
ओ सूरज तेरी रोशनी आज क्या मद्धम पड़ गयी,
या खेलता है मुझसे तू आंख मिचौली,
क्यूँ कर ना आसमा थोड़े आंसूं बहा दे,
या ये ठंडी बयार मुझे भी छू ले,
सुकून मिले इस दहकते मन को,
नहीं तो सुलगते तन और मन के,
धुएँ के इस घने अंधकार में लिपट,
तन्हा अपने ही आगोश में,
चिरंतर के लिए सिमट ही ना जाऊं,
कहीं अनंत में, मैं खो ही न जाऊँ।
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ज्योत्सना पन्त