Monday, 17 June 2024

परिधि


गृहस्थी के ठेले को ले, रिश्तों के मेले में घूमते घूमते, मैं आज तक यह ना समझ सकी कि मैं तो एक वृत्त की परिधि में घूम रही हूँ, जिसका अन्तिम बिन्दु तो है ही नहीं।

इस वृत्त की परिधि से बाहर निकलने के लिए  अपकेन्द्रिय शक्ति (centrifugal force) या सरल भाषा में कहा जाए  तो संकल्प शक्ति (will power) की जरुरत होती है, जिसको मैं कभी जुटा ही नहीं पायी।

इस अंत हीन परिधि से मुक्ति, केन्द्राभिमुख शक्ति (centripetal force), के प्रभाव से केन्द्र में गिर कर अनन्त  में विलीन होने से मिलती। जिसका हकदार ईश्वर  ने मुझे अब तक समझा नहीं। 

अकेली पड़ गई हूं, जिंदगी इतनी बेबस हो जाएगी सोचा भी ना था। चले तो सफर में एक साथ थे, समय के साथ दूरियाँ बढ़ती ही गईं, पथिक आते गए, अपनी अपनी मंजिल पाने हाथ छुड़ा अपनी राह जाते रहे, और हम सबका मार्ग दर्शन कराते कराते कब पथ के दो किनारे बन गए पता ही ना चला।

अब तो सफर कट रहा है, देखने को तो साथ साथ, पर सड़क के दो पाट चाहे कितनी ही दूरियां एक साथ चल लें पर मिलते नहीं, बस चलते ही रहते है और अंततः विलुप्त हो जाते हैं।

मैं तो हारी थकी सी पथिक हूं, विलुप्त होने की राह देखती हूँ। नयन थक गए और बाट जोहती हूँ। सब हैं, पर केवल तू ही है अपना इस जगत में मेरा प्रभु, हे प्रभु तुझसे मिलन की आस रखती हूं।

तेरी शरण मैं पड़ी हूं दयामय।

मुझपर दया करना हे प्रभू।।


अनायास मरणम् अन्य दाने जीवनम्।

मृत्युं त्वम् सानिध्यम् प्रदाति मे परमेश्वरम्।।