लक्ष्य और उत्तरदायित्व
शून्य से एक गूँज उठी,
उसने प्रश्न मुझसे पूछा,
क्या है तेरा जीवन लक्ष्य?
मैं भोली धीरे से बोली,
अपने बालकों को,
सुदृढ़ देह का और,
मन मस्तिष्क से सच्चरित्र बनाना,
यही है लक्ष्य मेरे जीवन का।
एक मधुर हँसी,
फिर वही गूँज,
शून्य से एक आवाज आयी,
अरे बावली ,
शिशु को जन्म दिया तो,
उसका पालन तेरा लक्ष्य नहीं,
है तेरा उत्तरदायित्व।
कैसे कह दिया तूने,
मेरे जीवन का लक्ष्य,
है इनका लालनपालन।
उनको शिशु अवस्था से,
बाल अवस्था,
बाल्यावस्था से युवा बनाना,
यह तो तेरा मातृ धर्म है,
लक्ष्य नहीं उत्तरदायित्व है।
वक्षस्थल से दूध पिला,
उत्तम भोजन पान करा,
संस्कारों से ओतप्रोत कर,
उसको उत्तम शिक्षण दे कर,
कर्तव्य पूर्ण किया,
अरे पगली यह तेरा लक्ष्य नहीं,
यह तो था तेरा उत्तरदायित्व।
मुझे भ्रान्ति हुई,
कुछ अस्पष्ट बोल,
निकले मेरे मुखारविंद से,
गुरु और मात पिता की सेवा करना,
सास ससुर की सेवा करना,
उनकी वृद्धावस्था को सुखद बनाना,
जीवन लक्ष्य है मैने बनाया।
जिन मात पिता ने जन्म दिया,
गुरु ने शिक्षा दान दिया,
सास ससुर ने अपना पुत्र दिया,
उनकी सेवा है धर्म तेरा,
वह लक्ष्य नहीं,
है उत्तरदायित्व तेरा।
अचंभित और भ्रमित देख तब,
सम्बोधित कर मुझसे बोले,
धर्म कर कर्म कर,
उत्तरदायित्व को निभा,
अन्तर समझ रे निर्बुद्धि,
लक्ष्य और उत्तरदायित्व में।
लक्ष्य तो जीवन का पगली,
है बस मुझको पाना।
घबराई सी अचंभित मैंने,
शून्य में जब देखा,
ईश चरण मेरे सन्मुख थे,
मैंने शत शत प्रणाम किया।
कर्म धर्म कर्तव्य करते,
उत्तरदायित्व को निभाते,
जीवन लक्ष्य को पहचान लिया,
लक्ष्य को मैंने पा हि लिया।
अपने ईश को मैंने पा लिया।
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