Sunday, 21 June 2020

एक खण्डित वृक्ष


मुझको तुम क्या मारोगे,
भस्म तुम्हें मैं कर दूँगा ।
    मूक हूं असहाय नहीं,
    यह फूटा कपाल,
    ये खण्डित अंग,
    ये मोती सम बहते अश्रु,
    मेरे पीड़ित होने का संकेत नहीं,
    अपितु,
     तुम्हारे निर्दयी, राक्षसी प्रवृत्ति
     के प्रमाण हैं ये।
जब जीवन रस बहता था मुझमें,
तुमको तप्ती धूप से औ,
वृष्टि धार से बचा लिया,
अपने अन्तः स्थल में छुपा लिया,
ठंडी पवन के झोंके दे कर,
अपने वक्षस्थल में सुला लिया।
      मन मौजी था मैं,
      कभी कर लेता था,
      अठखेलियाँ मैं।
      ना कुछ मांगा तुझसे,
      ना उलाहना के बोला बोल,
      मैं तो था एक हरा भरा,
      फूलता हुआ गुलमोहर।
आज रोष से भरा है मेरा मन,
तो ले कह देता हूँ,
श्राप नहीं दूँगा कभी,
क्यूंकि यह नहीं प्रकृति मेरी,
पर हाँ यह जान ले,
जीवन रस से मुक्त हो कर,
अब मैं अधिक बलवान हुआ,
यह शुष्क अंग, यह शुष्क देह,
अब प्रतिशोध की ज्वाला में जलते हैं।
      जब तुमने मुझको काटा था,
      यह प्रण किया था मैंने,
      सब प्राणी और प्रकृति से,
      प्रतिषोध तुम्हारा मैं लूंगा।
      प्रतिषोध तुम्हारा मैं लूंगा।
मन की पीड़ा की ज्वाला,
शांत तभी अब होगी,
जब उन कलरव करते पक्षियों की,
जिनकी हृदय भेदी रुदन का,
प्रतिशोध मैं तुमसे ले लूँगा।
      अब देख तू मेरे क्रोध की ज्वाला,
      भस्म तुम्हें मैं कर दूँगा.
      अरे तू क्या मुझे जालायेगा,
      ओ असहाय, निर्लज्ज मनुष्य,
       भस्म तुम्हें में कर दूँगा,
पुनः तुम्हें अपने आगोश में ले कर,
चिर निद्रा में  सुला दूँगा तुम्हें ।
मूक सही असहाय नहीं,
मैं भस्म तुम्हें ही कर दूँगा,
भस्म तुम्हें ही कर दूँगा ।

एक खण्डित वृक्ष।