इस जीवन के कुछ पल जी तो लूँ
फिर आजाना तू मुझको लेने,
ऐ मौत क्यों न तुझे दया आती,
ये वक्त नहीं है मरने का।
वीरान उसे जब होना था,
अब अपने भी पराये लगते हैं,
तू रूक जरा उन्हें पहचान तो लूँ ,
ये वक्त नहीं है मरने का।
कुछ रिश्ते हैं,
कुछ नाते हैं,
कुछ अपने और पराये हैं,
अब घर की चार दिवारें पूछती,
वो कौन जो तेरे अपने हैं,
वो कौन जो तेरे पराये हैं।
ऐ मौत मुझे कुछ और पल जीने दे,
इन दीवारों को समझा दूं मैं,
ये वक्त नहीं है जाने का..।
इक बीज था मैंने बोया,
अंकुर से पेड़ बना वो,
कितना सहलाया,
कितना दुलराया,
सोचा कभी छाँव मेरी बनेगा वो,
पर इस उम्र कि तपती धूप में,
उस छाँव को ढ़ूढ़ति फिरती हूँ,
ऐ मौत जरा रुक, रुक
उस छाँव में जरा बैठ तो लूँ,
ये वक्त नहीं है मरने का...।
जिस पेड़ को तूने पाला था,
हलराया था,
दुलराया था,
वह पेड़ तो ऊंचा हो चला,
उस पेड़ के नीचे छाँव नहीं,
बस कांटों की है भरमार वहाँ,
जिस पेड़ को तू ढ़ूढ़ती है,
वह पेड़ तेरे आंगन में कहाँ।
उठ यहां कोई तेरा अपना न पराया है,
यह देश भी तेरा बेगाना है,
तेरी बगिया सदा आबाद रहे,
इसी मनोभाव से तुझे लेने आया हूँ,
अब देर न कर,
तू चल, देर न कर,
तुझे अपने, पराये दिखाता हूँ।
यह अटल सत्य है रे पगली,
यहां कोई किसीका अपना नहीं,
सब बेगाने हैं।
मैं मानने को तैयार नहीं,
भटके कदमों ने ढ़ूढ़ ही लिया,
सोचा
अब पेड़ की छाँव में बैठूंगी।
पग लड़खड़ाऐ,
आंखें भर आईं,
डग मग डग मग लुड़की मैं,
मौत ने मुझको थाम लिया,
मौत ने मुझको थाम लिया।
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